Azam khan का संघर्ष | और वर्तमान सरकार की नीति | अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन और उर्दू का सवाल
अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन और उर्दू का सवाल: आज़म ख़ान का संघर्ष और वर्तमान सरकार की नीति
भारत का इतिहास भाषाई आंदोलनों से भरा पड़ा है। इन्हीं आंदोलनों में से एक था “अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन”, जिसे 1966 में समाजवादी नेता आज़म ख़ान ने शुरू किया था। यह आंदोलन भारतीय भाषाओं, विशेष रूप से हिंदी और उर्दू, को उनका उचित स्थान दिलाने के लिए लड़ा गया था। लेकिन आज, जब सदन में सरकार “उर्दू हटाओ” की बात कर रही है, तो यह सवाल उठता है कि क्या भारत की भाषाई विविधता और लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचला जा रहा है?
1966 का अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन और आज़म ख़ान का योगदान
आज़म ख़ान ने 1966 में “अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन” की अगुवाई की थी। यह आंदोलन उन नीतियों के खिलाफ था जो अंग्रेज़ी को ज़रूरत से ज़्यादा महत्व देकर भारतीय भाषाओं को पीछे धकेल रही थीं। आंदोलन का मुख्य उद्देश्य शिक्षा, प्रशासन और न्याय व्यवस्था में हिंदी व उर्दू को उचित स्थान दिलाना था ताकि आम जनता को सरकारी कामकाज समझने में आसानी हो।
लेकिन इस आंदोलन को दबाने के लिए सरकार ने दमनकारी नीतियाँ अपनाईं। आंदोलनकारियों पर लाठियाँ बरसाई गईं, उन्हें गिरफ्तार किया गया और कई लोगों को पुलिस की बर्बरता का सामना करना पड़ा। आज़म ख़ान खुद इस आंदोलन के दौरान सत्ता के ज़ुल्म का शिकार हुए। उन्हें कई बार जेल में डाल दिया गया, लेकिन उन्होंने अपने विचारों से समझौता नहीं किया।
उर्दू हटाने की साजिश और आज का भारत
आज़ादी के बाद भारत ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश की, लेकिन साथ ही उर्दू को भी संरक्षित किया गया क्योंकि यह लाखों भारतीयों की मातृभाषा है। उर्दू, जिसे हिंदुस्तान की तहज़ीब की भाषा कहा जाता है, को जबरदस्ती मुस्लिमों की भाषा बताकर हाशिए पर डालने की कोशिशें लगातार होती रही हैं।
आज, जब सदन में सरकार “उर्दू हटाओ” जैसी बातें कर रही है, तो यह सवाल उठता है कि क्या भारत अपनी बहुसांस्कृतिक और बहुभाषीय पहचान को खो रहा है? उर्दू सिर्फ़ एक भाषा नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता का एक अभिन्न हिस्सा है। यह भाषा मीर, ग़ालिब, फैज़ और साहिर की शायरी में गूंजती है, यह भाषा हिंदी के साथ मिलकर गंगा-जमुनी तहज़ीब की पहचान बनाती है।
सरकार की यह नीति केवल एक भाषा पर हमला नहीं है, बल्कि यह भारत की साझा संस्कृति और इतिहास पर भी प्रहार है। अगर इसी तरह भाषा के नाम पर भेदभाव जारी रहा, तो यह लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना के खिलाफ होगा।
आज़म ख़ान: एक संघर्षशील नेता
आज़म ख़ान का जीवन संघर्ष की मिसाल है। उन्होंने हमेशा हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज़ बुलंद की और उनकी भाषा, संस्कृति और अधिकारों के लिए लड़े। “अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन” से लेकर आज तक, उन्होंने अपनी विचारधारा के लिए अत्याचार सहे, लेकिन कभी झुके नहीं।
आज के समय में, जब उर्दू को खत्म करने की बातें हो रही हैं, तब हमें आज़म ख़ान जैसे नेताओं के संघर्ष को याद करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भारत की भाषाई विविधता बनी रहे। भारत की ताकत उसकी अनेकता में है, और अगर किसी भाषा को मिटाने की कोशिश होगी, तो यह देश की सांस्कृतिक विरासत को मिटाने के बराबर होगा।
निष्कर्ष
“अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन” सिर्फ़ एक भाषा का सवाल नहीं था, बल्कि यह आम जनता के अधिकारों का संघर्ष था। आज़म ख़ान ने इस आंदोलन में जो भूमिका निभाई, वह हमें बताती है कि भाषा सिर्फ संचार का माध्यम नहीं, बल्कि पहचान और आत्मसम्मान का प्रतीक भी होती है।
आज, जब सदन में उर्दू को हटाने की बातें हो रही हैं, तब हमें यह समझना होगा कि यह भारत की मिली-जुली तहज़ीब पर हमला है। सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन भाषा और संस्कृति को बचाना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। उर्दू हिंदुस्तान की भाषा थी, है और रहेगी – इसे कोई मिटा नहीं सकता।