यह सोचकर दिल रो उठता है कि अगर आज गांधी जी ज़िंदा होते, तो शायद वे एक बार फिर उपवास पर बैठ जाते अपने आँसुओं से नफ़रत की आग बुझाने की कोशिश करते।

जब हिंदुस्तान ने आज़ादी की साँस ली थी, उस वक़्त बापू यानी महात्मा गांधी जी ने अपनी पूरी ज़िन्दगी की पूँजी, अपने आदर्श और अपने ख़्वाब इस सरज़मीं पर क़ुर्बान कर दिए थे।
उन्होंने तहरीक-ए-आज़ादी में नफ़रत के ख़िलाफ़ मोहब्बत का परचम बुलंद किया। उनका ख़्वाब था कि हिंदू और मुसलमान एक ही माटी के फूल बनकर महकेंगे।
गांधी ने बँटवारे के वक़्त अपने लहू से पुकारा था कि मुस्लिम हमारे भाई हैं इस मुल्क के उतने ही वारिस हैं जितने हिंदू या सिख। उन्होंने दंगों को रोकने के लिए रोज़े रखे, जान हथेली पर रखकर दहकती गलियों में गए। वो चाहते थे कि तालीम, रोज़गार और मोहब्बत में सबका हिस्सा बराबर हो।
लेकिन अफ़सोस, आज हालात बदल गए हैं। वही मुसलमान, जिन्होंने इस वतन की आज़ादी के लिए अपने ख़ून का नज़राना पेश किया अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ान, मौलाना आज़ाद, ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान जैसे नाम जिनके बिना हिंदुस्तान की तहरीक अधूरी है आज उन पर शक की निगाह डाली जाती है। उन्हें ऐसे देखा जाता है जैसे वो पराए हों, जैसे उनकी मोहब्बत-ए-वतन कमतर हो। ये कितना बड़ा ज़ुल्म है कि जिन्होंने इस मिट्टी के लिए अपने घर उजाड़े, अपने जानिसार बेटे खोए, आज उनके वारिसों से उनकी वफ़ादारी का सबूत माँगा जा रहा है। क्या आज़ादी की यही ताबीर थी? क्या गांधी, नेहरू, भगत सिंह, अशफ़ाक़ुल्लाह और लाखों गुमनाम शहीदों का सपना यही था?
आज मुसलमान महसूस करता है कि उसके सीने में चुभते सवाल हैं
क्या हम इस वतन के नहीं?
क्या हमारी क़ुर्बानियाँ भुला दी गईं?
क्या मोहब्बत-ए-वतन सिर्फ़ एक मज़हब की मिल्कियत है?
गांधी जी ने कहा था इस मुल्क की रूह गंगा-जमुनी तहज़ीब है। यानी हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर वो धारा हैं जो इस सरज़मीं को ज़िंदा रखती हैं। लेकिन आज नफ़रत का ज़हर फैलाया जा रहा है, भाई को भाई से जुदा करने की कोशिश हो रही है। हम सबको याद रखना होगा कि आज़ादी की नींव मोहब्बत, बराबरी और इंसाफ़ पर रखी गई थी। अगर इंसाफ़ और मोहब्बत खो जाए तो ये मुल्क अपनी रूह खो देगा।
