इंसाफ की आस

आज़म ख़ान साहब एक ऐसा नाम जिसने ज़िंदगीभर जनता की आवाज़ उठाई, शिक्षा और इंसाफ़ की राह चुनी, आज वही बुज़ुर्ग नेता बार-बार अदालतों की चौखट पर दस्तक दे रहे हैं।
मगर हर बार तारीख़ आगे बढ़ा दी जाती है, और ज़मानत मिलना एक अधूरी उम्मीद बन चुकी है।
सरकारी वकील बार-बार समय मांग लेते हैं, और केस को लंबा खींचा जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे न्याय नहीं, बल्कि प्रतीक्षा दी जा रही है एक सज़ा बिना फ़ैसले के।
आज़म ख़ान अब सुप्रीम कोर्ट पहुँच चुके हैं, मगर सवाल वही है
क्या एक 75 वर्षीय बुज़ुर्ग नेता को भी न्याय के लिए इतना संघर्ष करना पड़ेगा?
क्या उनके परिवार को भी इंसाफ़ की राह में सिर्फ़ तारीख़ें ही मिलेंगी?
यह सिर्फ़ एक इंसान की नहीं बल्कि लोकतंत्र और न्याय प्रणाली की परीक्षा है।
आज़म ख़ान आज भी कानून में आस्था रखते हैं शायद यही उनकी सबसे बड़ी ताक़त और सबसे गहरी पीड़ा है।
ये लड़ाई सिर्फ़ ज़मानत की नहीं,
इंसाफ़ की है।

