जब आज़म खाँ साहब ने कहा था – जीने का अधिकार दे दो
वोट का अधिकार ले लो – तब शायद उन्होंने आने वाले हालात को भांप लिया था।
“जिन्हें जिंदा रखा है हमने अपने वोटों से,
वही आज हमारे अधिकारों के दुश्मन बन बैठे हैं।”

लिंचिंग की घटनाएँ हुई ओर बहुत हुई
और अब बिहार के कुछ हिस्सों में लोगों को वोट न डालने देना यही साबित करता है कि जीने और बोलने का हक़ छीना जा रहा है।
आज जब डर, दहशत और जाति-धर्म के नाम पर लोकतंत्र को कुचला जा रहा है,
तब आज़म साहब की वो आवाज़ और भी गूंज रही है – कि अगर इन्सानियत और सुरक्षा नहीं, तो वोट का अधिकार भी बेमानी है।
🗳️ वोट का अधिकार और बदलते हालात — एक चिंतन (आज़म ख़ान साहब के संदर्भ में)
आज देश एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है जहाँ लोकतंत्र की आत्मा वोट का अधिकार खुद संकट में नज़र आ रही है। जिस देश ने आज़ादी के लिए लाखों कुर्बानियाँ दीं, आज उसी देश में लोगों को यह डर सताने लगा है कि क्या आने वाले समय में वे अपने मताधिकार का उपयोग* कर भी पाएँगे या नहीं।
सरकार का रवैया, न्याय प्रक्रिया का धीमा चलना, और विरोधी आवाज़ों को दबाने की नीति, सब मिलकर इस डर को और गहरा कर रहे हैं। एक आम नागरिक से लेकर बड़े-बड़े जनप्रतिनिधि तक, जो सत्ता से सवाल करते हैं, उन्हें या तो चुप करा दिया जाता है, या फिर कानून के नाम पर उन्हें लटकाया जाता है।
इसी परिप्रेक्ष्य में आज़म ख़ान साहब* का नाम बार-बार सामने आता है। आज़म ख़ान, जो तीन बार उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं, जो रामपुर की ज़मीन पर शिक्षा की अलख जगाने* वाले नेता के रूप में जाने जाते हैं आज वो एक-एक मुकदमे में फँसाए जा रहे हैं। उन पर इतने केस दर्ज कर दिए गए हैं कि मानो उनका जुर्म सिर्फ ये हो कि उन्होंने सत्ता से सवाल किया, अपनी क़ौम की आवाज़ बने।
उनका लंबा जेल जाना, ज़मानत के लिए बार-बार अदालतों के चक्कर लगाना, और हर बार किसी न किसी वजह से मामले का लटकाया जाना, यह सब बताता है कि आज वोट देने वाले की औकात और वोट माँगने वाले की नीयत में कितना बड़ा फर्क आ गया है।
आज अगर कोई सरकार से सवाल करता है, तो उसे ‘देशद्रोही अर्बन नक्सल या ‘ग़द्दार’ जैसे शब्दों से नवाज़ा जाता है। यही नहीं, चुनावों से पहले नागरिकों की नागरिकता पर सवाल उठाना, NRC और CAA जैसे क़ानून लाकर *डर का माहौल बनाना यह सब किस ओर इशारा करता है?

“जिन्हें जिंदा रखा है हमने अपने वोटों से,
वही आज हमारे अधिकारों के दुश्मन बन बैठे हैं।”क्या यही लोकतंत्र है?
क्या यही आज़ादी है?
आज लोग डर के साये में हैं। अगर किसी की विचारधारा सत्ता से मेल नहीं खाती, तो उसे चुनावी मैदान से बाहर रखने की कोशिश की जाती है — चाहे वो मुकदमे हों, चुनाव आयोग की कार्रवाइयाँ हों या फिर झूठे आरोपों की बाढ़। ऐसे में सवाल उठता है — क्या आने वाले वक़्त में वाकई हमारे पास वोट देने का अधिकार रहेगा? या वो सिर्फ एक नाम मात्र की औपचारिकता बनकर रह जाएगा?
आज ज़रूरत है सजग रहने की, बोलने की, और सच्चाई के साथ खड़े होने की। आज़म ख़ान जैसे नेता जो लगातार आवाज़ उठाते रहे, हमें उनसे सीख लेनी चाहिए कि लोकतंत्र की रक्षा चुप रहकर नहीं होती, बल्कि सच कहने के साहस से होती है।
वरना वो दिन दूर नहीं जब हमारे हाथ में वोट की उंगली पर लगी स्याही तो होगी, लेकिन उसका कोई अर्थ नहीं होगा।
“जिन्हें जिंदा रखा है हमने अपने वोटों से,
वही आज हमारे अधिकारों के दुश्मन बन बैठे हैं।”
✍️ लेखक: एक जागरूक नागरिक
www.jugnu24.com

